समंदर की लहरों की तरह कभी उठता
तो कभी गिरता ,
सदैव आगे बढ़ता रहता ,
फिर किनारों से सिमटता हुआ समंदर , मुझे कुछ आभास कराता
और थम सा जाता मैं ।
खुली अलमारियों के बंद दराजों में कुछ छुपा है
जैसे खुले मन के बंद गले में कुछ छुपा है ,
किस तत्त्व में ढला है समाज?
इस असमंजस में खुद को पाता ,
और थम सा जाता मैं ।
शहरों में क्रौंधती रात की रोशनी,
मानो दिन के उजाले को नीचा दिखाती ये रोशनी ,
इस चीख-चिल्लाहट में मूक अचिन्तित चला जा रहा मैं ,
कुछ पैसों की खन-खन् होती , फिर बाएं कंधे पर एक बुढ़िया का हाथ देखता
और थम सा जाता मैं ।
मेरे कमरे में अक्सर दो कबूतर आया करते हैं ,
कुछ टहनियां उठा लाते हैं, शायद एक घोसला बनाना चाहते हैं ,
मैं एक-एक कर टहनियां बाहर फेंक दिया करता हूँ ,
शायद कमरा साफ़ रखना चाहता हूँ ,
वे टहनियां फिर उठा लाते , और थम सा जाता मैं ।
यथार्थ ही , दंग सा मैं, क्रोधित, असमंजस में बैठा शब्दों को टटोलता ,
कुछ यूँ , की अर्थ स्पष्ट रहे,
फिर उन्ही की गहराईओं में लड़खड़ाता और संभालता सा ,
प्रकृति का दायरा समझ पाता ,
और थम सा जाता मैं ।
अब तो शब्द भी साथ नहीं देते ,
शायद इस बात की पीड़ा शब्दों को भी है ,
शायद इसीलिए न वे दीखते हैं और न कुछ कहते हैं,
मैं फिर भी ढूंढता उन्हें , और कहीं नशे की आड़ में ही वे मिल जाते
तो थम जाता मैं ।